अंधेरा
अंधेरा घना था
दूर दूर तक रौशनी झक मार कर भी नज़र नही आती थी
अजीब वीरान जगह थी
पहली दफह पहुँचा था
बुलावा ही कुछ ऐसा आया था
ना करना भी नामुमकिन बराबर था
एक अधूरी कहाँनी थी
जो लिखनी भूल गए थे
ज़हन में कुछ तस्वीरें उमड़ रही थीं
बन बिगड़ रही थीं
एक चेहरा सा बनता दिखा
एक अक्स आंखो के सामने आ खड़ा हुआ
अंधेरे में चांदनी सा चमकता मस्तक
हया से तिरछा रोशनी से दूर भागती एक मुस्कान
मानो मन में बसने के लिए ही बनी हो जैसे
शोखी थी उसके बांकपन् में भी
हर कोई खिचा चला आता था
हम भी तो उनके दीदार ही को आये थे
एक दफह फिर बेआबरू होने
बुला भेजा था
उन्हे ना कहना वश में था ही कब अपने
कल भी यही हाल था
और आज भी
कौन कहता है के वक़्त पे इंसान बदल जाता है
ना हम बदले
ना वो
बस हालात का कसूर है
वरना कहानी अपनी भी थी
अफसानों से भरी हुई।